गाँवो के कामचलाऊ विकास से प्रतिवर्ष सरकारी खजाने का हज़ारों करोड़ बर्बाद हो रहा है

मुझे अपने पैतृक गांव ताड़ी बड़ा गांव, बलिया, उत्तर प्रदेश में प्रवास के दौरान कई गाँवो के विकास का जमीनी हकीकत देखने को मिला। यदि वास्तव में गाँवो का दीर्घकालिक कायाकल्प करना है तो एक गांव को हज़ार करोड़ रूपये की जरूरत है जो शायद हज़ार सालों में भी नहीं हो पायेगा। मुझे गाँवो में हो रहा विकास कामचलाऊ लगा और सरकारी खजाने का हज़ारों करोड़ पानी में बहा दिखाई दिया। कहीं कहीं पानी के निकास के लिए लाखों खर्च कर बना नाली उजड़ गया है, २-३ साल पूर्व करोड़ों के लागत से बनी सड़के टूट रही है, कहीं २-४ लाख के बजट में किसी स्कूल का रंग रोगन हुआ है तो अंदर से खंडहर है और किसी किसी स्कूल में अंदर से टाइल्स लगा है तो बाहर से खंडहर है, अस्पतालों में इतनी गन्दगी है कि उलटी हो जाय, कही भी ऐसा शौचालय नहीं मिला जहाँ दो नंबर तो क्या एक नंबर भी किया जा सके। कचड़े का ये हालत है की गांवों के सारे तालाब गन्दगी से पट रहे हैं या उसे जलाने से निकले धुएं में सांस लेना मुश्किल हो रहा है। किसी माननीय की मूर्ति लगी है तो उसपर कबूतर टट्टी-पिसाब कर रहे हैं। किसी भी बनी चीज को नई बनाये रखने के लिए रख रखाव का बजट शुन्य है अतः पुनः उसके नव निर्माण में हज़ारों करोड़ का चुना लगेगा। क्या सरकारी खजाने के बर्बादी से कोई लोक सेवक आहत होता है? मुझे एक गांव में एक शिलान्यास मिला जिसे बिजली के खम्भे ने रोका है नहीं तो यह भी ट्रैक्टर के नीचे मसल दिया गया होता। क्या गाँवो का कामचलाऊ विकास कर प्रतिवर्ष सरकारी खजाने का हज़ारों करोड़ बर्बाद करना उचित है? एक बार गंभीरता से विचार करे।

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